Sunday, May 11, 2014

एक और मृगतृष्णा

एक और मृगतृष्णा

एकाकी बिस्तर पर
सिरहाने बैठी वह
सपने संजोती है
काग़ज़ की नाव पर
हिचकोले खाती वह
मोती पिरोती है

मेरे मनपृष्ठ पर
आड़ी और तिरछी
रेखाएँ खींचती
बरसती मेघ बन
एक नयी वासना से
भूमि को सींचती

सूक्ष्म है, स्थूल है
मेरे मनप्राण में
संगीत की वीणा है
या मरुस्थल में
स्वयंभूत उपजी
एक और मृगतृष्णा है - अकुभा


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