Friday, June 26, 2015

जुड़वा भाई - a short story

जुड़वा भाई
आलिम और विशाल बचपन से अच्छे मित्र थे, बल्कि कहना चाहिए जुड़वा भाई जैसे थे। दोनो का जन्म एक ही दिन हुआ था। हिन्दी और उर्दू की तरह वे साथ साथ पनपे व बढ़े। गीत और ग़ज़ल जैसा साथ । उनके रचेता, उनके पिता व अब्बा और माँ व अम्माँ का आपसी व्यवहार सगे सम्बंधियों से कम न था। दिवाली पर वे मिल कर पटाखे चलाते और ईद की सेवैयां आलिम से पहले विशाल के मुँह लगतीं।
ऐसा नहीं कि विशाल और आलिम के बीच कभी झगड़ा नहीं होता था लेकिन कुछ ही देर में वे फिर से मिल कर खेलते नज़र आते।
विशाल के पिता की गाँव में किराना की दुकान थी । आमदनी इतनी कि घर में खाने पीने की कोई कमी नहीं। ज़्यादा पढ़े लिखे नहीं थे लेकिन हिसाब के पक्के थे। उधार पर किस को कितना दिया सब बही में लिख लेते और समय पर वसूल भी लेते। कभी किसी को तंगी रहती तो समय की मोहलत भी दे देते । लेकिन उधार कभी माफ़ नहीं करते। अरे भई, घोड़ा घास से दोस्ती करेगा तो खाएगा क्या। हाँ धर्म कर्म की बात होती तो वे बढ़ चढ़ कर चंदा ही नहीं देते बल्कि कार्य में सम्मिलित भी होते।
आलिम के पिता की वान, रस्सी और निवार की दुकान थी । उनके यहाँ चारपाई, कुर्सी आदि की बुनाई का काम भी होता था। परिवार के आठ सदस्यों का पेट भी भर पाते और वक़्त बेवक्त गाँव में किसी ज़रूरतमन्द की मदद भी। पाँच वक़्त नमाज़ पढ़ने वाले मियाँ जी की गाँव में बहुत इज़्ज़त थी। उनकी एक ही इच्छा थी कि उनके बच्चे पढ़ें लिखें और उनकी तरह से अनपढ़ न रहें। अपनी छोटी सी आमदनी का एक बड़ा हिस्सा वे बच्चों की शिक्षा पर ख़र्च कर देते।
समय बीतता गया और आलिम व विशाल बड़े हो गए। गाँव में दसवीं तक का स्कूल तो था लेकिन इससे आगे पढ़ने के लिए शहर ही जाना पड़ता था। विशाल के पिता चाहते थे कि अब विशाल को स्कूल छोड़ कर काम में लगना चाहिए। अच्छी आमदनी थी। साथ वाली दुकान के मालिक बूढ़े हो चुके थे। उनकी इकलौती संतान, उनकी बेटी विवाह कर अपने पति के घर मेरठ में रहती थी। वे चाहते थे कि मरने से पहले अपनी दुकान बेच कर हज कर लें। विशाल के पिता को व्यवसाय बढ़ाने का यह उचित अवसर लग रहा था।
आलिम के पिता ने विशाल के पिता को समझाया - वक़्त बदल गया है। तालीम की अहमियत समझो। काम तो चलते रहेंगे पर पढ़ने की उम्र निकल जाएगी। इधर आलिम ने भी विशाल को आगे पढ़ने के लिये राज़ी कर लिया। आख़िर दोनों का दाख़िला शहर के हाई स्कूल में हो गया। वहीं पास में एक होस्टल में रहने का प्रबन्ध भी कर दिया गया। ख़ुशी ख़ुशी दोनों शहर के लिये रवाना हो गए। होस्टल में दोनों एक ही कमरे में रहते, एक साथ पढ़ते, एक साथ खाना खाते और एक साथ खेलते।
तभी एक दिन उन्होंने समाचार सुना कि गाँव में दंगे फ़साद हुए हैं। मंदिर व मस्जिद में लाउड स्पीकर को ले कर तनाव हुआ। कुछ स्थानीय नेताओं ने स्तिथी का लाभ उठाने के लिए भड़काऊ भाषण दिए और रातों रात लाठियों-तलवारों का प्रबंध कर दिया। दंगों में कई लोग मारे गए। अनेक घर व दुकानें जला दीं गई। बहुत से लोग जान बचाने के लिए गाँव छोड़ कर दूर भाग गए। आलिम और विशाल घबरा गए। तरह तरह की आशंकाओं ने मन में डेरा डाल लिया। दोनों को जैसे साँप संूघ गया। न बात करते, न कुछ खाते पीते। फ़ोन पर जानकारी लेने की कोशिश की पर गाँव का कोई फ़ोन न लगा।
अगले दिन दोनों ने गाँवँ जाने का निर्णय किया। बसें उस दिशा में नहीं चल रहीं थी। जैसे तैसे गाँव तक पहुँचे लेकिन भीतर जाने पर पाबंदी थी। पूछताछ करने पर पता चला कि आलिम का परिवार वहाँ से कुछ किलोमीटर दूर एक कैम्प में है। आलिम तुरंत कैम्प के लिए निकल पड़ा। कर्फ़्यू में ढील मिलते ही विशाल गाँव में अपने घर जा पहुँचा । माँ पिता को ठीक ठाक पा विशाल की साँस में साँस आई। देर तक वह अपने पिता से गाँव में हुई घटनाओं के बारे में जानकारी लेता रहा। लेकिन जब उसने आलिम के घर परिवार के बारे में जानना चाहा तो पिताजी ने कहा कि उन्हें इस बारे में कोई जानकारी नहीं है। बाद में उसे पता चला कि आलिम के अब्बा ने दंगाइयों को बहुत समझाने की कोशिश की पर किसी ने उनकी न सुनी। उनका घर, दुकान सब जला दिया गया। परिवार को लेकर बड़ी मुश्किल से जान बचा कर वे गाँव से निकल भागे।
कुछ दिन गाँव में रह कर विशाल होस्टल वापस चला गया। आलिम ने अपने अब्बा के साथ मिल कर कुर्सियाँ बुनने का काम शुरू किया है ताकि अपने परिवार का पेट भर सके।
-अकुभा

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