Saturday, September 10, 2016

चिंता

चिंता

पिछले साल बारिश में कई गावँ वालों का बहुत नुक़सान हुआ था। रोशन बादलों को देख कर बहुत डरा हुआ था। उसने अपने झोंपड़े में रस्सी लगा कर सारे कपड़े ऊँचे रख दिए। बर्तनों को तो कोई नुक़सान नहीं हो सकता।

शाम होते होते तेज़ बारिश शुरू हो गई। रोशन अपनी झोंपड़ी की मिट्टी की दीवार में बने एक छेद से हर कुछ देर बाद बाहर देख लेता। बकरी उसके लिए बनाए कोठड़े में आराम से सो रही थी।

धीरे धीरे घर के बाहर पानी भरने लगा। रोशन अत्यधिक चिंतित हो उठा। गाँव से लोगों की आवाज़ें आने लगी। लोग भाग भाग कर अपने सामान व जानवरों को ले कर ऊँचे स्थानों की ओर जाने लगे। रोशन भी सोच रहा था कि अगर पानी आया तो वह क्या करेगा। नींद न जाने कहाँ ग़ायब थी। बाहर पानी का शोर बढ़ता जा रहा था। जब पानी उसके झोंपड़े में आने लगा तब रोशन ने सामान की गठड़ी बाँधनी शुरू कर दी। बाहर जा कर बकरी को भी झोंपड़े में ले आया।

रात आधी से अधिक बीत चुकी थी। झोंपड़े में घुटने घुटने पानी आ चुका था। क़यामत की रात थी। बारिश थमने का नाम ही नहीं ले रही थी। फिर अचानक जैसे पानी के सर भूत सवार हो गया। आनन फ़ानन में झोंपड़ा एक तरफ़ गिरा। रोशन जैसे तैसे नीचे से निकला ओर अपनी गठड़ी को ढूँढने लगा। अंधेरे में न गठड़ी मिली न बकरी।

सुबह आते आते तूफ़ान थमा। चारों ओर तबाही ही तबाही दिख रही थी। गाँव न जाने कहाँ गया। लोग अपने टूटे घरों में से अपना सामान तलाश रहे थे। पास ही एक ऊँचे स्थान पर रोशन बेख़बर आराम से सो रहा था। उसकी सारी चिंताएँ बाढ़ में बह जो गईँ थीं।
- अकुभा

बीच की लकीर

बीच की लकीर

एक पाला सच का
एक पाला झूठ का
दोनों के बीच एक छोटी सी लकीर
किसी एक पाले में खड़े हो जाओ
तो वो सच दिखता है
और दूसरा झूठा,
और अगर लकीर पर खड़े हो कर देखो
ते दोनों पाले झूठ दिखते हैं।
- अकुभा

दीवारें

दीवारें और दरारें

जिन मुंढेरों को फांद लेते थे
बन गई हैं वहां पक्की दीवारें
ढूंढती हैं आज आंखे
कहीं तो होंगी कोई दरारें।
- अकुभा

कविता

कविता

मैंने तेरे लिए कभी लिखी थी
एक कविता
बरसों की दूरी ने
परत दर परत
उस कविता पर चढ कर
उसे भारी भरकम बना दिया
कभी दिन रात उस कविता को
भर भर गिलास
पीते थे हम दोनों
और अरमानों के पंख लगा
उड़ते तस्सुवरों के आकाश में
वो बर्फ़ सी पथराई
आज पड़ी है
एल्बम के पन्नों के बीच।
- अकुभा