Sunday, July 30, 2017

कैसा संबंध

कैसा सम्बंध

आज से अड़तीस साल पुरानी बात है। दो साल तक भरसक प्रयत्न करके भी मैं अपनी हथकरघा के व्यवसाय को सफल कर पाया। कपड़े के व्यापार में उधार के चलन ने मेरी सारी की सारी वर्किंग कैपिटल ख़त्म कर डाली। तभी मुझे एक निर्यातक से कुछ कपड़े का आर्डर मिला लेकिन मेरे सभी श्रमिक तब तक जा चुके थे। मेरी हथकरघा की तलाश एक ऐसे बूढ़े मुसलमान कारीगर पास ले गई जिसका पूरा परिवार - पत्नी दो बेटियाँ, मिलकर अपने छोटे से घर में कपड़ा बुनता था। उन्हें मानो खुदा की रहमत मिल गई। 

मेरा उनके घर रोज़ आना जाना रहता। मियाँ जी करधा चलाते और उनकी पत्नी बेटियाँ चर्खों पर बाबिन भरना अन्य काम करती। कभी उनकी पत्नी या बेटी ऐलुमिनम के बर्तन में चाय बना लाती। मियाँजी की बस एक चिन्ता थी कि किसी तरह दोनों बेटियाँ ब्याह कर अपने अपने घर चलीं जायं ताकि मियाँजी आराम से मर सकें। 

मियाँजी के पास शाम देर तक काम सम्भव नहीं था क्योंकि रोशनी की कोई व्यवस्था नहीं थी। शाम पड़ते ही शीशे की एक छोटी बोतल में मिट्टी का तेल डाल कर और उसके ढक्कन में एक रस्सी की तुर्री लगा कर दिया जलाया जाता जिससे घर में कुछ रोशनी तो हो जाती लेकिन इतनी नहीं कि काम किया जा सके। 

इस बीच मेरी यूनिट पूरी तरह बंद करके मैंने हथकरघे बेच डाले ताकि बैंक से लिया लोन का एक हिस्सा चुका सकूँ। मियाँ जी की हालत देखते हुए मैंने अपने बचेखुचे औज़ारों के साथ दो पैट्रोमैक्स के हण्डे भी उन्हें दे डाले। कुछ समय तक करघे, चाय गप्पों का रिश्ता चलता रहा। आख़िर मेरा कपड़े के व्यवसाय करने की आख़िरी कोशिश ने भी दम तोड़ दिया। मैंने एक नौकरी शुरू कर दी और मियाँजी के घर आना जाना भी समाप्त हो गया। बैंक के लोन को चुकता करना एक बड़ी समस्या थी जिसके कारण जीवन के कई आयामों की तरफ़ ध्यान ही नहीं जाता था।

लगभग डेढ़ दो वर्ष बीत गये। एक दिन काम से घर आया तो मेरी माँ ने बताया कि कोई सफ़ेद दाढ़ी वाले मुल्लाजी मुझ से मिलने आए थे। पूछने पर बोले बस मिलना ही था, और कोई काम था। मुझे लगा ज़रूर मुसीबत में होंगे जो इतने समय के बाद इतनी दूर से मिलने आए। 

लगभग एक सप्ताह के बाद समय निकाल कर मैं मियाँजी के घर गया। देखा तो उनकी बेटियाँ सारा सामान बाँध रही थी। मैंने पूछा अब्बा कहाँ हैं। दोनों ने रोना शुरू कर दिया। पता चला पाँच दिन पहले गुज़र गए। और अम्मी? उन्हें गुज़रे तो एक बरस हो गया। अब दोनों बेटियाँ बिजनौर अपने मामा के यहाँ जा रहीं थी। किसी से मिल पाने की टीस दशकों के बाद आज भी ताज़ा है। 


-अकुभा