Friday, June 26, 2015

कौन है हिन्दू कौन मुसलमां

कौन है हिन्दू कौन मुसलमां
कौन दीन के प्यारे
हम जीतें या वो जीतें
जो लड़े वो सब हारे
मुठ्ठी जो बन्द करें ज़ोर से
नख काटे चर्म कर का
बाँटे जो घर के टुकड़े
नाश हो सारे घर का
जिसके दिल में राम बसे
वो कैसे हो हरजाई
जिस देखा फ़र्क़ ख़ून का
उसके न प्रभु न ख़ुदा ही
-अकुभा

ये कारवाँ

जब वक़्त ने और धूप ने मौक़ा दिया
ज़िंदगी के कई मुक़ाम आये गये
गुज़रे लमहे, दिन, माह, और साल
तजुरबे की तहों में उलझे कुछ उजले बाल
करवटें लीं ज़िन्दगी ने बहुत
बदलें नहीं सिर्फ़ हमारे हालात
बदलीं शक्लें, बदले तेवर
बदले लोगों के ख्यालात
कभी जो एक सपना था
कल्पना की एक लम्बी उड़ान
धरती पर टिके खम्बे से
जीवन ने परछाईं दी तान
धूल के उड़ते ग़ुबार में
गुज़रे ज़मानों की हैं दासतानें
रुकता कहाँ है ये कारवाँ
किसको पता, कौन जाने - अकुभा

अब कविता की बारी है

अब कविता की बारी है
शाम की छटा
है बड़ी सुंदर
चिडियों का कोलाहल
पास के नीम पर
पश्चिम में ढलता सूरज
नारंगी बादल
काले पूरब पर
रंगों का खेल
बदलता पल पल
पेड़ों की छाया
पहले थी श्यामल
हो गई धूमिल
कहीं किसी झींगुर ने
लगाई है तान
नींद तो आयेगी
है दिन भर की थकान
सांझ ढलने से पहले
करने हैं कुछ काम
रात तो प्यारी है
देगी बहुत आराम
पंछियों का कोलाहल
हो रहा शांत
अब सोने की तैयारी है
अब कविता की बारी है।
- अकुभा

इतने सवाल

सवाल इतने सारे और
जवाब इतने कम क्यों होते हैं
ये आसमान क्यों इतना नीला है
ये चाँद क्यों इतना भड़कीला है
तारे क्यों सिर्फ़ टिमटिमाते हैं
भाग्य पहले से क्यों लिखें जाते हैं
परेशान रातें ज़्यादा काली होती हैं
भूखों के पेट क्यों फूले होते हैं
सपने क्या कच्ची मिट्टी के होते हैं
चोर क्या दिन में आराम से सोते हैं।
पेड़ों पर पैसे क्यों नहीं उगते
शाहों के दिल क्यों नहीं धड़कते
मंज़िलें दूर क्यों होती हैं
ख़ुश हो या उदास मांएं क्यों रोती हैं।
बचपन इतना सुंदर है तो
हम बड़े क्यों होते हैं ।
सवाल इतने सारे और
जवाब इतने कम क्यों होते हैं।
-अकुभा

Ismen Chhupa Kyaa Raaz

No Carrots, No Sticks

No Carrots, No Sticks
No carrot, no stick
O God, if you are there
Let me feel you
As light in my interior.
O almighty, if you exist
Don't let your agents
Sell me the idea
Or scare me into believing.
I am a willing candidate
To accept your rule
Only let me feel the reality
Not myth as true.
If you are The Lord
Why people are ignorant
In thy name they divide
And hatred they chant.
If God is one, parent to all
Every person his child
Why there is violence
Everyone behaving so wild.
O believers, O faithfuls,
Show me the way to God,
No carrots, no sticks,
Just a heart full of love.
- Akubha

चाबी वाली गाड़ी - a short story

चाबी वाली गाड़ी
राजू ने आखिर आज अपने पापा को बाज़ार चलने के लिये मना ही लिया और उनकी सायकल के पीछे बैठ कर चल पड़ा।
बहुत दिनों से राजू ने ज़िद पकड़ी थी कि उसे वही चाबी वाली गाड़ी चाहिये जो उसके मित्र अजय को उसके पापा ने ले कर दी थी। हर रोज़ अजय बड़े गर्व से अपनी गाड़ी में लगी चाबी को घुमाता और फिर उसे ज़मीन पर छोड़ देता। गाड़ी बड़ी तेज़ी से भागती हुई आगे की और बढ़ती और सारे बच्चे पीछे पीछे शोर मचाते भागते जब तक गाड़ी की चाबी समाप्त ना हो जाती। अजय सीना फुलाये अपनी गाड़ी को उठाता और कहता "बस आज के लिये इतना ही।" सारे बच्चे याचना करते "इतना कम क्यों? कुछ देर तो और चलाओ".
नहीं, मुझे घर जाना है। मां इंतज़ार करती होगी, डांटेगी।
अभी अभी तो तुम आये थे, कुछ देर तो रुको। इस तरह से मानाने पर वह रुक जाता और बच्चे गाड़ी का और मज़ा लेते। कभी कोई बच्चा कहता "एक बार मुझे भी चलाने दो ना" तो अजय कहता "अरे बहुत मेहंगी है। टूट गयी तो"।
राजू कहता मेरे पापा इससे भी बड़ी गाड़ी ले कर देंगे।
घर आ कर राजू अपनी मां के पास जा कर कहता "मुझे भी चाबी वाली गाड़ी ले कर दो ना।" मां उसे प्यार से समझाती "देखो, तुम्हारे पापा रोज़ पैदल काम पर जाते हैं। सबसे पहले उनके लिये एक सायकल लेनी है। सायकल होगी तो तुम भी उनके साथ घूमने जाना। फिर तुम्हारे लिये चाबी वाली गाड़ी भी लेंगे। राजू पैर पटकते हुए ज़िद करता "हम पहले गाड़ी क्यों नहीं ले सकते। मुझे गाड़ी ही चाहिये पहले।"
मां राजू का ध्यान बंटाने के लिये बोलती "आज मेरा राजा बेटा क्या खायेगा? गुड़ के साथ रोटी खायेगा?" और राजू खाना खाने में व्यस्त हो जाता। बाद में जब उसके पिताजी अपना टिफिन वाला थेला पकड़े घर में प्रवेश करते तो राजू भागता आता और कहता "पापा, आज हमने अजय की चाबी वाली गाड़ी खूब चलाई पर उसने हमें नहीं नहीं चलाने दी, खुद ही चलाता रहा। मुझे भी ऐसी गाड़ी ले कर दो ना." मां उसी डाँट कर कहती "पापा थके हुए आयें हैं सांस तो लेने दो। चलो जा कर पढ़ाई करो। पापा जब खाना खा लेंगे तब बात करना।" पिताजी खाना खा कर जब तक आते राजू सो चुका होता। कभी कभी सोते सोते वह फुसफुसाता "अबकी मेरी बारी. मुझे भी तो चलाने दो।" मां उसके सर पर हाथ फेरती और राजू शान्ती से सो जाता।
और फिर एक दिन पापा नयी सायकल ले कर आये। घर में जैसे खुशी की लहर दौड गयी. राजू फूला नहीं समा रहा था। कभी वह सायकल के पैडल पर पांव रख कर मूँह से सीटी की आवाज़ निकलता, कभी सायकल की घंटी बजाता। माँ ने गुड़ की खीर बना कर पडोसियों को भी खिला दी। पड़ोस के कई बच्चे भी एकत्रित हो गए और राजू ने गर्व से सबको बताया कि उसके पापा ने सबसे अच्छी वाली सायकल खरीदी है। शाम ढलते ढलते राजू को फिर से चाबी वाली गाड़ी की याद आ गयी। वह अपने पापा के पास जा कर बैठ गया और बड़ी आशा से बोला "पापा, अब तो आपकी सायकल भी आ गयी। अब आप मेझे चाबी वाली गाड़ी दिलवाओगे ना।"
ज़रूर दिलवायेंगे बेटा।
तो कल चलें बाज़ार, पापा। राजू ने खुश होते हुए कहा।
कल नहीं, अभी दीवाली आने वाली है। इस दीवाली पर हम अपने राजू को अच्छी सी गाड़ी लेकर देंगे।
चाबी वाली गाड़ी। राजू ने चहकते हुए जोड़ा।
हाँ हाँ, चाबी वाली गाड़ी।
और राजू दीवाली की प्रतीक्षा में दिन गिनने में लग गया। हर रोज़ वह माँ और पिता से निश्चित कर लेता कि दीवाली पर उसकी मनवांछित गाड़ी के कार्यक्रम में कोई परिवर्तन तो नहीं होगा। उसने अपने सब मित्रों को भी बता दिया कि आने वाली दीवाली पर उसके पिता उसके लिये चाबी वाली गाड़ी ले कर देंगे। अंततः वह दिन भी आ गया जब राजू ने पापा से कहा कि दीवाली को केवल चार दिन शेष हैं और आज आप घर पर भी हो। आज तो हमें बाज़ार जाना ही चाहिये गाड़ी ख़रीदने के लिए। "ठीक है, चलो चलते हैं।" पापा ने कहा। राजू उचक कर सायकल के पीछे लगे कैरियर पर बैठ गया।
बाज़ार पहुँच कर पापा ने सायकल को स्टैण्ड पर ताला लगा कर रखा और राजू का हाथ पकड़ कर खिलौनों वाली एक दुकान पर जा पहुँचे। दुकानदार ने कई गाड़ियाँ दिखाईं पर राजू को कोई पसंद न आई। कोई छोटी थी तो किसी में चाबी नहीं थी। पिता ने कहा - चलो हम दूसरे बाज़ार चलते हैं। वापस जब सायकल स्टैण्ड पर पहुंचे तो सायकल वहाँ नहीं थी जहाँ वे लोग खड़ा कर के गए थे। पापा ने आस पास सब लोगों से पूछा। किसी से कुछ न पता चला। परेशान हो वे पास की चौकी पर हवलदार के पास गये और सायकल की चोरी की रपट लिखाई।
चौकी से बाहर निकल कर पापा एक पुलिया पर सिर झुका कर बैठ गए। राजू अपने पापा को परेशान देख कर विचलित हो रहा था। कुछ देर चुप रह कर वह बोला "पापा, पुलिस चोर को ज़रूर पकड़ लेंगी और फिर हमारी सायकल वापस मिल जाएगी।"
कुछ क्षण चुप रह कर पापा उठे और बोले "चलो, हम पैदल ही चलते हैं। दूसरी दुकान से तुम्हारे लिए अच्छी सी गाड़ी ख़रीदेंगे।"
नहीं पापा, मुझे अभी याद आया कि मास्टर जी ने कल स्कूल में एक कविता याद कर के आने को कहा था। इसके लिए मुझे अभी घर जाना होगा। पापा ने राजू को अपनी पीठ पर उठा लिया और घर की ओर चल पड़े।

सपने - a short story

सपने
राजू को शहर आए दो महीनों से कुछ अधिक हो चुका था। इन दो महीनों में उसने कई हाथ पैर मारे काम की तलाश में। पहले उसने कई कारखानों में नौकरी तलाशने की कोशिश की। एक जगह उसे काम मिलते मिलते रह गया। वहां पत्थर की मूर्तियां बनती थी। सुपरवाइजर ने राजू से छोटी छोटी मूर्तियों पर एक मशीन से पालिश करने को कहा । पहली ही बार मूर्ति हाथ से छिटक कर गिर गई और टूट गई। निराश राजू फिर से काम की तलाश में लग गया ।
गांव से चलते समय मां के पास आशीर्वाद के अलावा देने को कुछ विशेष न था फिर भी उसने राजू को कुछ पैसे एक पडोसी से ऊधार मांग कर दिए थे। राजू दिन में एक समय रूखा सूखा खाता ताकि उन पैसों से अधिक से अधिक दिनों तक गुजारा कर सके।
कई दिनों तक काम नहीं मिला। आखिर उसने सबजी मंडी में हमाली का काम शुरू किया । वह मंडी में घूमता रहता और किसी ग्राहक को भारी सामान के साथ देखता तो जाकर कहता - लाईये मैं ले चलता हूँ । दिन भर कोशिश करने पर वह कुछ रुपए कमा लेता। रात में वहीं किसी दुकान के बाहर वह सो जाता ।
फिर एक दिन एक दुकानदार ने राजू को बुलाया और कहा - काम करोगे? राजू के गले से आवाज ही न निकली। अरे, गूंगे हो क्या या सांप सूंघ गया?
करूंगा जनाब। क्या करना होगा। राजू ने हडबडा कर कहा।
इस रहडे पर सब्जी लादो और गोल चक्कर के पार वैश्णव होटल पर पहुंचा दो। दस रूपये मिलेंगे । पर सामान लेकर भाग तो न जाओगे ।
जनाब, रोज़ी से धोखा करके कहाँ जाऊँगा।
रेहडी का पूरा ध्यान रखना। कुछ नुकसान हुआ तो पैसे तुम्हीं को भरने होंगे।
नहीं जनाब, मैं पूरा ध्यान रखूंगा । राजू ने मालिक को अश्वस्त किया।
दस रुपये क्या मिले जैसे राजू को जागीर मिल गई । रेहडी पर दो मन सब्जियां लाद वह दो मील ऐसे दौड़ा मानो पंख लगा कर उड़ रहा हो। चलते चलते उसके मन में कई विचार भी कुंचालें भरने लगे । मां न जाने कैसे गुजारा कर रही होगी । अब कुछ दिनों में मां को कुछ पैसे भेजूंगा । माँ की धोती में अनगिनत पैबंद लगे हैं। एक नई धोती भी भेजूंगा।
अपने सपनों में डूबा राजू दौड़ा चला जा रहा था। उसने देखा ही नहीं सड़क के दूसरी और बहुत से लोग शोर मचाते हुए भाग रहे थे। किसी के हाथ में लाठी और कोई निहत्था।
वैश्णव होटल पहुंच कर राजू ने रेहडी पर लदी सब सब्जियाँ उतारी और अपने माथे से पसीना पोंछते हुए होटल के एक व्यक्ति से पूछा - भैया, पानी मिलेगा। वहां नल है, जितना चाहो पी लो। थका मांदा था राजू । पेट भर पानी पिया और अपनी कमीज की बाजू से मुंह पोंछ कर चलने को ही था कि वह व्यक्ति उसके पास आया और बोला - संभल कर जाना, शहर के हाल ठीक नहीं हैं।
क्यों क्या हुआ? राजू ने हैरानी से पूछा।
होना क्या है वही दंगा फसाद। मार काट और आगजनी। कुछ लोग मारे जाएंगे। अमीरों का कुछ बिगडेगा नहीं, गरीबों के मुंह से निवाला छिनेगा।
चिंतित राजू ने सोचा जल्दी से मंडी पहुंच कर रेहडी मालिक के हवाले करता हूं और अपने दस रुपए ले लेता हूँ। मुझे इस दंगे फसाद से क्या लेना देना। वह थका था लेकिन खाली रेहडी और भारी मन लिए तेजी से वापस चल पडा।
अभी आधा मील ही चला होगा कि उसे सामने से गुस्साई भीड़ आती दिखाई दी । वह जल्दी से पास की गली में घुस गया। उसका दिल जोर जोर से धड़क रहा था। भीड़ का शोर पास आता सुनाई दे रहा था । राजू उकड़ूं हो कर रेहडी के पीछे छुप गया।
अचानक राजू को अपने पीछे से आवाज आई । वह ज्यों ही पलटा उसके सिर पर एक लाठी का वार हुआ। राजू चक्कर खा कर गिरा। इसके बाद क्या हुआ उसे कुछ पता न चला। बाद में जब उसे होश आया तो रात हो चुकी थी । अंधेरे में उसने अपने दुखते सिर को पकड़ा तो वह गीला था। राजू को धीरे धीरे सब याद आने लगा। उसे रेहडी की याद आई। वह उठा और रेहडी को ढूंढने लगा, जो कुछ ही दूर उसे अधजली हालत में मिली।
तभी सीटी बजाती पुलिस की एक टुकडी वहां पहुंची। ऐ, यहां क्या कर रहे हो, एक हवलदार चीख कर बोला। मालूम नहीं है कर्फ्यू लगा है । इससे पहले कि राजू कुछ बोलता पुलिस ने उसकी पीठ पर एक डंडा लगाया और उसे थाने पहुंचा दिया। वहां उस जैसे और भी बहुत से लोग थे।
राजू ने हवलदार के पांव पकड लिए और अपनी रामकथा सुनानी चाही। हवलदार बोला अब छोडऩा तो मुश्किल है पर अगर सौ रुपए दो तो कोशिश करता हूँ। राजू ने जेब से दो महीनों में बचाए साठ रुपये निकाले और हवलदार के सामने रख दिये।
-अकुभा

जुड़वा भाई - a short story

जुड़वा भाई
आलिम और विशाल बचपन से अच्छे मित्र थे, बल्कि कहना चाहिए जुड़वा भाई जैसे थे। दोनो का जन्म एक ही दिन हुआ था। हिन्दी और उर्दू की तरह वे साथ साथ पनपे व बढ़े। गीत और ग़ज़ल जैसा साथ । उनके रचेता, उनके पिता व अब्बा और माँ व अम्माँ का आपसी व्यवहार सगे सम्बंधियों से कम न था। दिवाली पर वे मिल कर पटाखे चलाते और ईद की सेवैयां आलिम से पहले विशाल के मुँह लगतीं।
ऐसा नहीं कि विशाल और आलिम के बीच कभी झगड़ा नहीं होता था लेकिन कुछ ही देर में वे फिर से मिल कर खेलते नज़र आते।
विशाल के पिता की गाँव में किराना की दुकान थी । आमदनी इतनी कि घर में खाने पीने की कोई कमी नहीं। ज़्यादा पढ़े लिखे नहीं थे लेकिन हिसाब के पक्के थे। उधार पर किस को कितना दिया सब बही में लिख लेते और समय पर वसूल भी लेते। कभी किसी को तंगी रहती तो समय की मोहलत भी दे देते । लेकिन उधार कभी माफ़ नहीं करते। अरे भई, घोड़ा घास से दोस्ती करेगा तो खाएगा क्या। हाँ धर्म कर्म की बात होती तो वे बढ़ चढ़ कर चंदा ही नहीं देते बल्कि कार्य में सम्मिलित भी होते।
आलिम के पिता की वान, रस्सी और निवार की दुकान थी । उनके यहाँ चारपाई, कुर्सी आदि की बुनाई का काम भी होता था। परिवार के आठ सदस्यों का पेट भी भर पाते और वक़्त बेवक्त गाँव में किसी ज़रूरतमन्द की मदद भी। पाँच वक़्त नमाज़ पढ़ने वाले मियाँ जी की गाँव में बहुत इज़्ज़त थी। उनकी एक ही इच्छा थी कि उनके बच्चे पढ़ें लिखें और उनकी तरह से अनपढ़ न रहें। अपनी छोटी सी आमदनी का एक बड़ा हिस्सा वे बच्चों की शिक्षा पर ख़र्च कर देते।
समय बीतता गया और आलिम व विशाल बड़े हो गए। गाँव में दसवीं तक का स्कूल तो था लेकिन इससे आगे पढ़ने के लिए शहर ही जाना पड़ता था। विशाल के पिता चाहते थे कि अब विशाल को स्कूल छोड़ कर काम में लगना चाहिए। अच्छी आमदनी थी। साथ वाली दुकान के मालिक बूढ़े हो चुके थे। उनकी इकलौती संतान, उनकी बेटी विवाह कर अपने पति के घर मेरठ में रहती थी। वे चाहते थे कि मरने से पहले अपनी दुकान बेच कर हज कर लें। विशाल के पिता को व्यवसाय बढ़ाने का यह उचित अवसर लग रहा था।
आलिम के पिता ने विशाल के पिता को समझाया - वक़्त बदल गया है। तालीम की अहमियत समझो। काम तो चलते रहेंगे पर पढ़ने की उम्र निकल जाएगी। इधर आलिम ने भी विशाल को आगे पढ़ने के लिये राज़ी कर लिया। आख़िर दोनों का दाख़िला शहर के हाई स्कूल में हो गया। वहीं पास में एक होस्टल में रहने का प्रबन्ध भी कर दिया गया। ख़ुशी ख़ुशी दोनों शहर के लिये रवाना हो गए। होस्टल में दोनों एक ही कमरे में रहते, एक साथ पढ़ते, एक साथ खाना खाते और एक साथ खेलते।
तभी एक दिन उन्होंने समाचार सुना कि गाँव में दंगे फ़साद हुए हैं। मंदिर व मस्जिद में लाउड स्पीकर को ले कर तनाव हुआ। कुछ स्थानीय नेताओं ने स्तिथी का लाभ उठाने के लिए भड़काऊ भाषण दिए और रातों रात लाठियों-तलवारों का प्रबंध कर दिया। दंगों में कई लोग मारे गए। अनेक घर व दुकानें जला दीं गई। बहुत से लोग जान बचाने के लिए गाँव छोड़ कर दूर भाग गए। आलिम और विशाल घबरा गए। तरह तरह की आशंकाओं ने मन में डेरा डाल लिया। दोनों को जैसे साँप संूघ गया। न बात करते, न कुछ खाते पीते। फ़ोन पर जानकारी लेने की कोशिश की पर गाँव का कोई फ़ोन न लगा।
अगले दिन दोनों ने गाँवँ जाने का निर्णय किया। बसें उस दिशा में नहीं चल रहीं थी। जैसे तैसे गाँव तक पहुँचे लेकिन भीतर जाने पर पाबंदी थी। पूछताछ करने पर पता चला कि आलिम का परिवार वहाँ से कुछ किलोमीटर दूर एक कैम्प में है। आलिम तुरंत कैम्प के लिए निकल पड़ा। कर्फ़्यू में ढील मिलते ही विशाल गाँव में अपने घर जा पहुँचा । माँ पिता को ठीक ठाक पा विशाल की साँस में साँस आई। देर तक वह अपने पिता से गाँव में हुई घटनाओं के बारे में जानकारी लेता रहा। लेकिन जब उसने आलिम के घर परिवार के बारे में जानना चाहा तो पिताजी ने कहा कि उन्हें इस बारे में कोई जानकारी नहीं है। बाद में उसे पता चला कि आलिम के अब्बा ने दंगाइयों को बहुत समझाने की कोशिश की पर किसी ने उनकी न सुनी। उनका घर, दुकान सब जला दिया गया। परिवार को लेकर बड़ी मुश्किल से जान बचा कर वे गाँव से निकल भागे।
कुछ दिन गाँव में रह कर विशाल होस्टल वापस चला गया। आलिम ने अपने अब्बा के साथ मिल कर कुर्सियाँ बुनने का काम शुरू किया है ताकि अपने परिवार का पेट भर सके।
-अकुभा

Three small poems

1.

बड़ा अजीज है ये ज़ख्म भी, क्योंकि 
ये तोहफा किसी दोस्त ही ने दिया है ।

2. 

बड़ी मीठी है ये दर्द 
सीने में, यकीनन, 
रह रह कर आती है 
किसी दोस्त की तरह। 

3. 

रूठा है कोई दोस्त, 
वजह-ए-नज़ाकत-ए-दिल, 
धडकता है जो सीने में मेरे
एक नाज़ुक सा दिल ही तो है ।

-अकुभा

क़र्ज़

क़र्ज़
ढूँढता हूँ उस समय को
जो कभी जिया नहीं ।
गोद मे खेला था जिसके
ख़्वाब जैसे तैरता
झीने आँचल के पीछे से
धुँआं धुँआ आँगन ।
क्यों न पनपी
वह कोमल भावना।
क्यों रहा रीता
वह कोना ।
निष्प्राण गणित सा।
क्यों लगा पाषाण
झरना जैसे शुष्क सा।
सुलगती है सीने में
रेत के एक ढेर सी
बोरियाँ कुछ क़र्ज़ की
रखी हैं ठंडे फ़र्श पर।
क़र्ज़ है बस यही उतारना।
बस है यही उतारना।
-अकुभा

इस तरह मिले

इस तरह मिले कुछ हमसे वो आज
जैसे गुज़रा जो था कोई ज़माना न हो।
पत्ते झड़ कर गिरे पेड़ की टहनियों से
और फिर से कभी उनका आना न हो।
हिज्र की रातों में कोई आहट नहीं
वक़्त चलता है यूँ कहीं जाना न हो।
पानियों की तरह बहता है दिल में शोर
जैसे उसका कहीं और ठिकाना न हो।
-अकुभा

अमुल्य पल

ये पल हैं बहुत अमुल्य
सजों कर रखना इनको।
यह कोमलता अदभुत
न रहती बरसों बरसों।
फल है उस तरुवर का
जो उपजे प्रेम धरा पर ।
मुट्ठी भर पकड़ो सूरज
लिखो समय की रेत पर ।
स्मरण रहे अकुभा
यह दिन है ढलता
जो डूबा मधुबंधन में
वही किनारे लगता।
-अकुभा

On international Yoga Day

On international Yoga Day
किसी ने ख्वाब दिखाया
गरीबी हटाने का
कोई संकल्प लिए था
21 वीं सदी लाने का
अब है विकास का
सबसे बडा मुद्दा
यूँ ही होते रहो टेढे मेढे
बाकी सब भूल जाने का।
-अकुभा

लघुकथा -- चुप्पी

लघुकथा
चुप्पी
दस वर्ष का रोहन बहुत ही नटखट व बातूनी बच्चा है। घर में कोई मेहमान आता है तो रोहन उससे खूब बातें करता है। माँ और पिताजी कुछ भी बात करें रोहन अपनी और से कुछ न कुछ जरूर जोड़ देता है।
जैसे कुछ दिन पहले पड़ोस से शर्माजी आए। पिताजी उनके साथ बैठ कर गप्पें लड़ा रहे थे। रोहन भी पास बैठा हर बात में अपनी राय दिए जा रहा था। माँ ने हलवे के साथ चाय लाकर परोसी। कटोरी हाथ में लेते ही रोहन के पिता बोले "अरे, हलवा ठीक से गरम तो कर ले"। रोहन बोला "पापा, आपने तो कहा था ज्यादा गरम खाने से जीभ जल जाती है"।
कल रोहन के मामा रवि मेरठ से आए थे। शायद माँ ने बुलाया था। बरामदे में पिताजी के पास बैठे थे। माँ चाय लेकर आई तो रवि ने बहन के सूजे हुए चेहरे को देखकर पूछा "यह क्या हुआ?" माँ चुप रही। रोहन भी चुप था। चुप्पी सब कुछ कह रही थी।
-अकुभा