Saturday, June 8, 2019

कैसी रुत

दिलों को चीर दे
कैसी ये रुत आई है
देखता हूँ जिधर भी
गहरी एक खाई है
सकूं इस बात का तो है
एक पुल अभी भी बाकी है
बढाऊँ हाथ उस ओर
तो थामता कोई साथी है
रंजिशों के सांप हैं
या सिर्फ परछांई हैं
ठण्डी हवा तो चली है
पर उम्मीद की गरमाई है
कह दो उनसे जिन्हें
आदत है गड्ढे खोदने की
हमने हाथेलियों से रास्तों को
सपाटने की कसम खाई है
-अकुभा

सुरमई शाम

अप्रैल के मध्य में 
जब मई उतर आएगी
बीच आँगन में 
सुरमई शाम में
दोपहर ठहर जाएगी
जलते से फ़र्श पर
नंगे पावं 
भागी आओगी
हर क़दम पर
कविता गुनगुनाओगी
कविता के हर छंद से
शीतल फुहार बरसाओगी।
⁃ अकुभा

ईरोम



किसने कहा सूरज निकलने पर दिन होता है
कितनी ही आत्माएँ भरी दोपहर में भी
अंधेरों में भटकती रहती हैं
खुली आँखों से भी रोशनी का अहसास नहीं होता
कितने जीव निर्जीव की शक्ल पड़े रहते हैं

महिमा किसकी होती है
महिमा होती है जीतने वाले की
भीड़ केवल जीतने वाले के पीछे चलती है
जैसे पाईड पाइपर के पीछे 
चूहे चलते हैं
क्या इन चूहों का भीड़ बना कर चलना
लोकतंत्र का द्योतक है

किसे अपने भविष्य का पता है
लेकिन जो कूएँ में कूदता है
क्या उसे तनिक भी अपने 
संभावित भविष्य का 
अहसास नहीं होता

कौन जानता है अपने भले की बात
रोटी के लिए कूद जाने वाला जानवर 
कहाँ तय कर पाता है
कि रोटी मुहँ में दबाए 
जब वह नीचे आएगा
तब वह कहाँ गिरेगा

⁃ अकुभा

कविता

कविता भी अजीब चीज़ है
कवि ने चाहा तो सूरज को पकड़ा 
गैस के ग़ुब्बारे की तरह 
धागे से उड़ाया
और छत पर बाँध आया
चाँद के बताशे को
बेतहाशा चूमा 
ख़्वाबों के झूले पर बैठ
प्रेयसी के होंठों से लगाया
बदलते मौसमों से
लेकर कुछ नमी
हथेली पर बीज रख
हसरतों का ऊँचा पेड़ लगाया
प्रीत की ड्योढ़ी में 
बरसों से मुंतज़र 
कवि ने लिखी कविताएँ 
बदले में केवल ढेर सा दर्द पाया
जिसका इंतज़ार था
बस वो ही नहीं आया
बस वो ही नहीं आया। 
⁃ अकुभा

समय की धारा

कलकल करती नदिया बहती
समय की धारा चलती रहती
नन्ही उँगलियाँ पकड़े चलती
धरती पर पाँव पड़ें डगमग
पग पग आगे बढ़ती रहती
एक कटोरा चाँदनी लिए
मुट्ठी भर आने वाले कल की
कभी मोर नाचे जंगल में
कभी चिड़ियाँ आँगन में चुगती
कभी आँख मिचोनी और कभी
कोशिश नभ को छू लेने की 
समय भागता पल भर में
ओझल होते नन्हें खेल
बन जाती यादों की रेल
फिर से नन्हें फूल है खिलते
फिर से आती बहार नई
इसी तरह चलती है कलकल
समय की नदिया बहती रहती
समय की नदिया बहती रहती।
⁃ अकुभा

गाँधी

गांधी मरा नहीं करते
वो मर ही नहीं सकते
क्योंकि हर गोडसे से लेकर
हर इन्सान के अंदर 
गांधी का एक अंश रहता है
रोते हुए बच्चे के सिर पर
जब आप हाथ फेरते हैं
किसी का भी दुख देख कर
जब किसी की दिल पिघलता है
तब आपके भीतर का गांधी
अपनी सक्रिय स्तिथी में होता है
गोडसे को भी अपने किए के लिए
लम्बी विवेचना लिखनी पड़ी थी
उसको भी मानना पड़ा 
कि करोड़ों लोगों के देश में
केवल गांधी ही इतना महत्वपूर्ण 
इतना प्रभावी व्यक्ति था 
कि उसके मंसूबों के लिए
उसका शहीद होना आवश्यक था
दुख केवल इस बात का है
कि जहाँ एक तरफ़ 
गांधी कभी नहीं मरते
वहीं गोडसे भी सदैव जीवित रहते हैं
हर युग में गांधी को मारने की कोशिश में।
⁃ अकुभा

इल्जाम

इल्ज़ाम है उन पे कि क़ौमों को लड़ाया था
ठोकर पर हैं वो जिन्होंने इल्ज़ाम लगाया था
कितने हुए हलाक़, कितनों के घर उजड़े 
गद्दी का निशाना था बस रास्ता बनाना था
⁃ अकुभा 

होम डिलीवरी


क्या कभी पिज़्ज़ा की तरह
ख़्वाब की भी
होम डिलेवरी हुआ करेगी

क्या सूरज के भी
छोटे छोटे पैकेट
बिका करेंगे

क्या बेसुध नींद में
ख़्वाबों की इतनी कमी हो जाएगी
कि उठने के बाद
आँखें खोल कर भी
रोशनी का अहसास न होगा।

- अकुभा

Ketchup


A drop of dried ketchup on his shirt
Like a frozen idea
He tries scratching
Carefully first, then rigorously 
Some of it comes out
Like hope in a desperate situation
Yet, it does not seem to end.

Contempt, in an empty world.
No one is watching,
He is his still worried
He pinches, twists and jerks
To remove the spot
And looks around
The world seems to be moving on

With a slight nod
He gets up, 
Carefree and light
He too moves on. 

⁃ Akubha

बौने

उगते हैं बौने पेड़ छोटे छोटे गमलों में
बस धीरे धीरे उनकी जड़ें काटते रहिए

चींटियों का शहर

हक़ीक़त के मुहाने पर खड़ा हूँ
बस ख़्वाब से निकलने की देर है

जलता हुआ एक कोयला है हाथ पे
बीता वक़्त बुझी राख का ढेर है।

कितने बोलों के हैं छाले ज़ुबान पर 
यह मुल्क क्या केवल बहरों का देश है

आँखों में चुभ गई एक परछाईं 
काली सी चुभन में एक तीखी चमक है

ढूँढे न मिला एक भी ज़िन्दा आदमी
शहर में फिर भी दिवाली की चहल पहल है। 

किस का पूछूँ हाल, किस को करूँ दरयाफ़्त
हर पत्थर के नीचे सिर्फ़ चींटियों का शहर है।

वाडनगर का संत


भारत का नया संत

दे दी हमें आज़ादी बिना खड्ग बिना ढाल
वाडनगर के संत, तूने कर दिया कमाल
भारत को दी पहली सड़क, रेल और जहाज़ 
कारख़ाने चलाए, कर दिया देश मालामाल

दुनिया को दिखाया तूने रास्ता नया
वोटों के लिए धर्म की लड़ाई कराई
पूँजीपतियों को ख़ज़ाने का मालिक दिया बना
भूखों दिए सपने, भक्तों की फोज बनाई
ग़रीबों को हर तरह से तूने कर दिया बेहाल
वाडनगर के संत, तूने कर दिया कमाल ..... 

पहनी खादी तूने गांधी से छीन कर 
लोगों को लूट कर नोटबंदी कराई
दुनिया से आतंकवाद कर दिया समाप्त
पाकिस्तान और चीन को दे दी मात
वाह रे फ़कीर खूब करामात दिखाई
चुटकी में दुश्मनों को दिया देश से निकाल
वाडनगर के संत, तूने कर दिया कमाल ..... 

बेटी


मेरी कामना है
मेरी बेटी इन्सान बने
एक बेहद साधारण इन्सान
न तो वह कोई परी हो
न ही कोई देवी
न लक्ष्मी, न दुर्गा, न सरस्वती
केवल एक साधारण इन्सान
जब वह घर से बाहर निकले
हर कोई उसे अनदेखा कर दे
वो कैसी दिखती है
या क्या पहनती है
कहाँ जाती है, क्या करती है
इसमें किसी को कोई
दिल्चस्बी न हो
उसके बारे में जब किसी को
कोई फ़ैसला करना हो
या राय बनानी हो
तो उसका रंग, चेहरा, लिंग
या कपड़े देख कर न बनाए
किसी काम के लिए उसे कभी 
अलग पंक्ति में खड़ा न होना पडे
उसके भाग्य का फ़ैसला करते हुए
कोई उसे बेचारी न समझे
उसे अपने हक के लिए
लड़ना स्वयं आता हो
जीवन में वो जितना पाये 
वह उसकी योग्यता, मेहनत व लगन
से मिले, न कम, न अधिक
वह अपनी मंज़िल व रास्ता
स्वयं तय करे
जैसे सब साधारण इन्सान करते हैं
मेरी कामना है 
मेरी बेटी एक इन्सान बने
केवल एक साधारण इन्सान। 
⁃ अकुभा

सफर का सामान


ये जो गहरा सा कोहरा छाया है
किसी याद में खोया है शायद समां

कोई सैलाब सा अभी आने को है
इक दर्द सा उठ रहा है सीने में यहाँ

क्या वाक़ई कोई उठ कर गया है 
कुछ ख़ाली जगह दिख रही है वहाँ

चलो बाँध लें सामान मुद्दतों के लिए
सफ़र पर चलना है न जाने कहाँ कहाँ
⁃ अकुभा

दिमाग के ताले


ऐसा कैसे कि कुछ लोग 
जैसे एक पिंजरे में बंद पंछी हों। 
देखने में उनका बदन स्वतंत्र दिखता है 
लेकिन दिमाग़ ताले में बंद हो। 
सर कटे मुर्ग़े की तरह उछलते हैं 
राष्ट्रवाद के नाम से
आजतक जैसे भारत 
केवल उन जैसे देशभक्तों के कारण ही
बचा हुआ है, 
वरना न जाने कब का लुट गया होता
हज़ारों वर्षों पुरानी संस्कृति 
बस अभी के अभी डूबने वाली है
और उसको बचाने के लिए
उनका अवतार हुआ है
उनके अलावा देश के १३० करोड़ लोग
दुर्भाग्यवश पाकिस्तान जाने से रह गए

देश के महानतम नेता
जैसे बापू और नेहरू
के नाम पर कीचड़ उछालते हुए
इन्हें कोई शर्म नहीं आती
चाहे इसके लिए 
ये कितने ही झूठ व प्रपंच फैलाएँ

इन्हें क्या लगता है
इनके इस झूठे अलाप से
हज़ारों साल पुरानी ये सभ्यता
असभ्यता में परिवर्तित हो जाएगी? 

⁃ अकुभा 

किताबें



पड़ी हैं मेरे सीने में बहुत बड़ी सी किताबें
लिखीं हैं जिनमें वो बातें जो तुमसे कह नहीं पाया

बहुत सी ख्वाईशें हैं, और बहुत सी उम्मीदें भी
कहनी थीं जो तुमसे मगर कभी मैं कह नहीं पाया

कुछ दर्द भीं हैं और शिकवे और शिकायत हैं
जिन्हें न कहने की यहाँ पुरानी रवायत हैं

कुछ ऐसे क़िस्से हैं जो तुमसे करने थे मुझे साझा
मगर डर था सुन कर न जाने तुम क्या क्या सोचोगी

ज़िंदगी की बहुत सी कड़वी मीठी यादें हैं मेरी
जिन्हें सुन कर न जाने तुम ख़ुश होगी या न होगी

सोचता हूँ कभी ये सारी किताबें तुमको दे डालूँ
ज़हन हल्का मैं कर डालूँ और चैन से सो जाऊँ 

मगर डरता हूँ बदले में कहीं तुम भी न दे डालो
और बड़ी किताबें, बोझ में जिनके मैं दब जाऊँ 
⁃ अकुभा

ईश्वर

तराशा था ईश्वर को
भव्यता व एकाग्रता सहित
खण्डित कर मैंने ही
विसर्जित कर डाला
हाय रे क्यों न तराशा मैंने
मन को अपने सुंदर स्वप्न में
क्यों न पहनी फूलों की माला
⁃ अकुभा

कर्ज 2


रात की चाल है क्यों धीमी
पग पग उठ रहे सवाल
नियति की डोर 
है बड़ी कमज़ोर 
झर झर बहते हैं
पिघले हुए कई साल 
टूटे काँच सी 
बिखरी आशाएँ 
वक़्त के पाँवों से
रिसते दर्दीले ज़ख़्म 

दूर कहीं पेड़ की टहनी पर
झूलता था बचपन
साँझ ढलते ढलते 
कोहरा में डूब गया 

विश्वास था बल था
चाल में रवानी थी
जोश की गाड़ी में
दौड़ती जवानी थी

कितने रास्तों पर 
नंगे पाँव भागते
फफोलों से तजुरबे
रूह पर उभरे

सूखी लकड़ी सी
उम्र की शाम
गिरे पत्तों के ढेरों पर
चरमराते पाँव 
पल पल बीते सालों का 
मिटता हिसाब 
लिखती है समय की सुई
क्योंकर कुछ क़र्ज़ 
चुकाना रह गया

भक्तों का गीत



परदा पड़ा है अक़्ल पर
बकते है बदज़ुबान
कानों से सुनते कुछ मगर
सुनता कुछ और दिमाग़ ।

कहने को धर्म के रखवाले
मुँह पर देशो समाज
उगलते हैं आग हर वक़्त 
वहशियत पे करते नाज ।

करते हैं राम की बातें 
मन से हैं हराम
जानवर की करते पूजा
इन्सां का क़त्लेआम ।

गौतम की इस ज़मीन पर
गांधी का किया ख़ून 
दंगों की राजनीति है
बेइज़्ज़त हर क़ानून।

कब तक चलेगा ये जुनूँ
कब तक ये गंदगी
आख़िर कभी तो रुकेगी
ये दौरे दरिंदगी।
-अकुभा

हाला

जुनूँ है, इश्क़ है, प्याला है
देखो तो चाय, पियो तो हाला है
मुस्कुरा ले नशा है जब तक
बाद में न जाने क्या होने वाला है।
-अकुभा

कलाकार

कलाकार है वो
जिसने फूलों को बनाया
उनमें ख़ुशबू भरी
और शोख़ रंगों से सजाया

दिलदार है वो 
जिसने फूलों को निहारा
उनसे कोमलता ली
और दुनिया को सँवारा

ग़ुलफाम है वो
जिसने कमज़ोर को सहारा दिया
और फूलों जैसे पाँवों को
तपती ज़मीन से से उठाया 

इन्सान है वो
जिसने इन्सानियत की राह चुनी
और किसी की जात या धर्म पर
कोई सवालिया निशान न लगाया। 

-अकुभा

चेहरा

ढूँढने चला मैं आदमी
जिसका चेहरा एक,
एक मुँह से दो दिखे
दूजे से दिखे एक।
- अकुभा

कौवा



तीन वर्ष की ऐशा हमारे साथ के घर में रहती थी। रोज़ाना जब उसकी माँ व पिता काम पर जाते तो वह खेलने हमारे घर आ जाती थी और हमारे पिताजी की गोदी में बैठ कर कहती दादू कहानी सुनाओ। कौन सी कहानी सुनाऊँ इस गुड़िया को - पिताजी सोचते और फिर ऐसे ही कोई कहानी बना देते, जैसेकि एक चिड़िया थी। वो खाना बना रही थी। एक कौआ आया और बोला - एक रोटी मुझे भी दे दो। चिड़िया बोली - नहीं है रोटी, भागो यहाँ से। कौआ फुर्र से उड़ गया। ऐशा रोज़ वही कहानी सुनती और ख़ुशी से किलकारियाँ भरती।

एक दिन दादू ने कहा - अच्छा आज तुम कहानी सुनाओ। ऐशा ने वही चिड़िया वाली कहानी सुनाई। कौआ आया, रोटी माँगी, चिड़िया ने कहा भागो, कौआ फुर्र से उड़ गया।

यूँही ऐशा बड़ी हो गई। कॉलेज जाने लगी। एक दिन बड़ी दुखद घटना हो गई। ऐशा निर्भया बन गई। चारों ओर सनसनी फैल गई। हम सब अस्पताल ऐशा से मिलने गए। दादू ऐशा के बेड के पास उसका हाथ पकड़ कर ख़ामोश खड़े थे। दोनों की आँखों से आँसू बह रहे थे। कुछ देर बाद ऐशा बोली - कौआ आया था। मैंने बहुत कहा भागो। पर कौआ नहीं उड़ा। 

-अकुभा

पांव


बहुत से लोगों के पाँव नहीं होते
पर कुछ ही हैं जो नहीं रोते 
पाँव वाले तो सब दौड़ते भागते
बिन पाँव के भी कुछ उड़ना है जानते

कितने हैं जो चखते जीवन को
बर्फ़ पर भी सेक लेते रोटियाँ 
और कितने अंधेरों में चलाते है तीर
लगे तो पहलवान, वरना बिगड़ी तक़दीर