Saturday, June 8, 2019

चींटियों का शहर

हक़ीक़त के मुहाने पर खड़ा हूँ
बस ख़्वाब से निकलने की देर है

जलता हुआ एक कोयला है हाथ पे
बीता वक़्त बुझी राख का ढेर है।

कितने बोलों के हैं छाले ज़ुबान पर 
यह मुल्क क्या केवल बहरों का देश है

आँखों में चुभ गई एक परछाईं 
काली सी चुभन में एक तीखी चमक है

ढूँढे न मिला एक भी ज़िन्दा आदमी
शहर में फिर भी दिवाली की चहल पहल है। 

किस का पूछूँ हाल, किस को करूँ दरयाफ़्त
हर पत्थर के नीचे सिर्फ़ चींटियों का शहर है।

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