हक़ीक़त के मुहाने पर खड़ा हूँ
बस ख़्वाब से निकलने की देर है
जलता हुआ एक कोयला है हाथ पे
बीता वक़्त बुझी राख का ढेर है।
कितने बोलों के हैं छाले ज़ुबान पर
यह मुल्क क्या केवल बहरों का देश है
आँखों में चुभ गई एक परछाईं
काली सी चुभन में एक तीखी चमक है
ढूँढे न मिला एक भी ज़िन्दा आदमी
शहर में फिर भी दिवाली की चहल पहल है।
किस का पूछूँ हाल, किस को करूँ दरयाफ़्त
हर पत्थर के नीचे सिर्फ़ चींटियों का शहर है।
बस ख़्वाब से निकलने की देर है
जलता हुआ एक कोयला है हाथ पे
बीता वक़्त बुझी राख का ढेर है।
कितने बोलों के हैं छाले ज़ुबान पर
यह मुल्क क्या केवल बहरों का देश है
आँखों में चुभ गई एक परछाईं
काली सी चुभन में एक तीखी चमक है
ढूँढे न मिला एक भी ज़िन्दा आदमी
शहर में फिर भी दिवाली की चहल पहल है।
किस का पूछूँ हाल, किस को करूँ दरयाफ़्त
हर पत्थर के नीचे सिर्फ़ चींटियों का शहर है।
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