रात की चाल है क्यों धीमी
पग पग उठ रहे सवाल
नियति की डोर
है बड़ी कमज़ोर
झर झर बहते हैं
पिघले हुए कई साल
टूटे काँच सी
बिखरी आशाएँ
वक़्त के पाँवों से
रिसते दर्दीले ज़ख़्म
दूर कहीं पेड़ की टहनी पर
झूलता था बचपन
साँझ ढलते ढलते
कोहरा में डूब गया
विश्वास था बल था
चाल में रवानी थी
जोश की गाड़ी में
दौड़ती जवानी थी
कितने रास्तों पर
नंगे पाँव भागते
फफोलों से तजुरबे
रूह पर उभरे
सूखी लकड़ी सी
उम्र की शाम
गिरे पत्तों के ढेरों पर
चरमराते पाँव
पल पल बीते सालों का
मिटता हिसाब
लिखती है समय की सुई
क्योंकर कुछ क़र्ज़
चुकाना रह गया
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