Saturday, June 8, 2019

समय की धारा

कलकल करती नदिया बहती
समय की धारा चलती रहती
नन्ही उँगलियाँ पकड़े चलती
धरती पर पाँव पड़ें डगमग
पग पग आगे बढ़ती रहती
एक कटोरा चाँदनी लिए
मुट्ठी भर आने वाले कल की
कभी मोर नाचे जंगल में
कभी चिड़ियाँ आँगन में चुगती
कभी आँख मिचोनी और कभी
कोशिश नभ को छू लेने की 
समय भागता पल भर में
ओझल होते नन्हें खेल
बन जाती यादों की रेल
फिर से नन्हें फूल है खिलते
फिर से आती बहार नई
इसी तरह चलती है कलकल
समय की नदिया बहती रहती
समय की नदिया बहती रहती।
⁃ अकुभा

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